Sunday 18 April 2010

मिटा दॅ इस अंधेरे को...

रचयिता - दिव्या

ये बंजर ज़मीन, ये खाली बर्तन,
सुखी आँखें और आधे ढके तन,
मंहगाई की ये भारी मार,
भूखे सोने को हम है लाचार,
यहाँ सुबह होती है रोज़ रोज़,
फिर निकल पड़े करने खाने की खोज,
कभी नींबू मिर्ची, कभी फूल,कभी बेची कितबे स्कूल के पास,
देखा सबको पढ़ते हुए, जागी मन मे एक आस,
क्यूँ है ये लाचारी, क्यूँ हैं हम बेबस,
हालत क्यू नही सुधरते क्यूँ चलता
नहीं बस,
तकलीफ़ों के समंदर मे डूबते हुए हम,
बढ़ती मुश्किलें ना हो रही कम,
जाने कब वो दिन आएगा,जब होगी हमारे घर भी रोशनी,
हम भी खाएँगे पेट भर खाना,
हमारे घर भी बन सकेगी चाशनी,
लोग कहते हैं एक दिन ऐसा आएगा,
कभी सोचा है इसे कौन लाएगा?
उठना होगा हमें हाथों मे ले के हाथ,
चलना होगा कदमो को मिलकर एक साथ,
तोड़नी होगी बेड़ियाँ अपने पैरो से,
निकलकर देखना होगा हमें अपने घरों से,
पहुचाना होगा हर बच्चे को अब स्कूल,
बना सकेंगे हम परिस्थितियों को तभी अनुकूल,
बन सकेगा तभी नया शिक्षित समाज,
बदल सकेगा हर लाचार अपना आज,
चलो चलें, मिटा दे इस अंधेरे को,
फ़ैलाएँ जागरूकता और शाक्षरता का ज्ञान|

***

4 comments:

  1. बहती हुई आँखों से मैने एक सपना देखा है.....हर टूटती हुई साँस मे जाता एक अपना देखता है.....
    परिवर्तन की आस लिए मैला ढोलते नन्हे हाथ , और जेठ में कील ठोकते बचपन का तपना देखा है....
    भावनाओं के ज्वार पर मन्थित होते शब्द और शब्दों की सरिता में विक्रत का खपना देखा है......
    बहती हुई आँखों से मैने एक सपना देखा है......

    ReplyDelete
  2. very impressive.
    सहित्य का संघर्ष मे हमेशा से काफ़ी योगदान रहा हैं.
    शायद साहित्य विशय वास्तु के संबंध मे गहरी समझ पैदा करता है.
    very thoughtful and good read indeed.

    ReplyDelete
  3. This comment has been removed by the author.

    ReplyDelete