Thursday 22 April 2010

आख़िर कब तक...

रचयिता -- दिव्या

धूल में सनी किस्मत, इंट और कंक्रीट से लदे हम,
क्यूँ कुचल रही उमीदें, क्यूँ तोड़ रहे हौसले दम,
कब तक करना होगा उमीदो पर जीवन निर्वाह,
दर्द से भरी राते, करवाटोसे निकलती पल-पल आह,
भूखे बच्चों का दर्द देखना हो हा असहनीय,
मंहगाई स्तिथि बनाती जा रही दयनीय,
पढ़ना तो दूर , दो वक़्त का खाना नही होता नसीब,
उधारी के बोझ तले दब्ता जा रहा ग़रीब,
साँसें चीख-चीख कर दे रही दुहाई,
बंद करो ये अत्याचार, कम करो मंहगाई,
क्यूँ नही सोचते हमारे विवस हालात को,
क्यूँ नही देखते भूख मे लिपटी हुई हर रात को,
क्यूँ नहीं पिघलता तुम्हारा मन,
इंसानियत ने क्यूँ तोड़ दिया दम,
क्यूँ होता है सिर्फ़ ग़रीब ही लाचार,
क्यूँ पड़ती है उसपर ही मंहगाई की ये मार|

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